सभी पुरुष एक जैसे नहीं होते। बिलकुल ठीक। लेकिन सभी स्त्रियों के अनुभव जाने क्यों एक जैसे हो जाते हैं। सेक्शुअल हैरासमेंट जैसा कभी कुछ मेरे साथ हुआ है ऐसा मुझे नहीं लगता था। बस या भीड़ का फायदा उठाने जैसी हरकतें तो हमें मामूली ही लगती हैं। सड़क के उस पार खड़े कुछ एक मर्दों का भद्दे इशारें या हवा में भौंडे ढंग से चुम्बन उछालना और हमारा मुँह फेरकर गुज़र जाना, ये सब तो हमारी दिनचर्या का हिस्सा हो मानो। यही सिखाया जाता है हमें कि हम एक ख़ास किस्म की बेटियाँ बने जिनपर माता-पिता नाज़ कर सकें। जिनके चरित्र पर विरोध और आवाज़ के छींटें ना हो, भले ही सिसकी, घुटन और दबी हुई चीत्कार क्यों ना छिपी रहे।
मेरी उम्र 24 वर्ष है। मुझे लड़की या युवती जो भी कह लीजिये। पर मेरे अंदर 12 साल की वो लड़की आज भी मौजूद है जिसने घर से स्कूल जाते समय रास्ते में पड़ने वाली सुनसान सड़क पर एक आदमी को अपने सामने पैंट नीचे कर अपना लिंग हिलाते देखा था और भागते-भागते स्कूल गयी थी। कितना भयानक अनुभव था वह। एक सहेली से अपनी घबराहट बतायी तो उसने कहा कि उस आदमी को ठीक उसी जगह उसने भी देखा था और वह रोज़ यही हरकत करता है। उसने अपनी मम्मी को जब यह बात बताई तो उन्होंने कहा कि वह पागल यानी मानसिक रूप से विक्षिप्त है। मुझे भी यह तर्क जँचा, भला कोई सही या भलामानुष अपना ऐसा अंग क्यों सार्वजनिक रूप से दिखाएगा जबतक दिमाग में कोई खराबी ना हो।
यह पहली ऐसी घटना थी मैं तयशुदा तौर पर नहीं कह सकती। संभव है इससे पहले मुझे उनकी ओर ध्यान देना सूझा ही नहीं हो। लेकिन इसके बाद मुझे हर नज़र और हर स्पर्श साफ़ समझ आने लगा था। मैं शायद थोड़ी बड़ी हो गयी थी, थोड़ी ज़्यादा सतर्क। चौकन्नी। जैसे सब लड़कियां हो जाती हैं। सिमोन ने जैसे कहा है “औरत पैदा नहीं होती बल्कि बन जाती है” या यूं कहिये कि बना दी जाती है।
इसके बाद मुझे याद आता है कि मैं ग्यारहवीं क्लास में थी, उन्हीं दिनों हमने नयी जगह शिफ्ट किया था। मैं और मेरी बहन रात को करीब ग्यारह बजे छत पर घूम रहे थे और हमारे घर के सामने वाले घर में किराए पर करीब 35-40 साल का आदमी रहता था। दूर से दिखाई दिया कि वह अपने कमरे में पूरी तरह निर्वस्त्र घूम रहा था। हमारा ध्यान उस तरफ गए कुछ सेकेंड्स ही हुए होंगे कि उसने दरवाज़े पर आकर हस्तमैथुन करना शुरू कर दिया। और एक बार फिर हम घबराकर छत से नीचे उतर आये। दिन के उजाले में भी वह आदमी दिखाई देता था और उसका बर्ताव देखकर खुद पर ही शक़ होता कि जो देखा था वो सच था भी या नहीं। इतना दोहरा चरित्र ! वह उम्र बहुत नाज़ुक दौर था जब इस तरह के वाकये बहुत डराते थे।
बाहरी दुनिया, रात को घिरता अंधेरा, सुनसान सड़क, भीड़ वाली बस, संकरे रास्ते यहां तक कि बराबर से गुज़रती कार, गाड़ी, ट्रक भी डराते थे। ट्यूशन जाते हुए ध्यान देते कि कहीं कोई पीछा तो नहीं करता, रोज़ एक ही रास्ते से नहीं जाना चाहिए जैसी सलाह। और भी कितना कुछ।
फिर एक वक़्त ऐसा भी आया कि मैंने घूरकर, हाथ झटककर, डपटकर कितनी ही बार अपनी तरफ बढ़े हुए हाथों को रोका। राजीव चौक की भीड़ में कौन उतरते हुए कमर पर हाथ फेरते हुए निकल गया, पलटकर देखने पर सिर्फ भीड़ ही दिखती है। घुटन और गुस्से से उबलता हुआ चेहरा रोनी सूरत में बदल जाता है। फिर लगता है चारों तरफ साज़िशें हैं, कि हम आगे ना बढ़ पाएँ। ऐसे अनुभव लड़कियों में गहरी घनिष्ठता का कारण भी बनते। हम एक दूसरे के अनुभव सुनते और सहमते हैं।
आंसुओं से भीगा चेहरा। फफकते होंठ। और बचपन की एक भयानक याद। लड़की कोई छः सात साल की रही होगी जब उसके फूफाजी उसे पुचकारते और फुसलाते हुए अकेले में ले जाते और उसके हाथों में अपना शिश्न पकड़ा देते और खुद लड़की को मसलते रहते।
और भी जाने कितनी ही बातें हम एक-दूसरे के अनुभवों में जीते और साथ रोते हैं। बलात्कार की तकलीफ समझने के लिए एक लड़की को ज़रूरी नहीं की ठीक उसी प्रक्रिया से गुज़रना हो बल्कि एक भद्दी नज़र भी उस एहसास तक पहुँचाने के लिए काफी हो जाती है। ये अनंत सिलसिला है। बचपन में खेल-खेल में लड़के कुछ ऐसे खेल ढूंढ निकालते थे जिनमें दबी-छिपी यौन अभिलाषा झांकती थी, वक़्त के साथ कुछ सम्मान और समता का भाव सीख गए तो कुछ नैतिक दबाव के चलते संभल गए लेकिन ‘लोलिता’ उपन्यास की तरह कितने ही हम्बर्ट हमारे समाज में हैं जो अपनी यौन अभिलाषाओं के वशीभूत हैं।
काउंसलिंग की ज़रुरत सिर्फ लड़कियों को ही नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा लड़कों को है। इस उम्र में उत्तेजना या भावुकता और काम के प्रति उत्सुकता स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होती है। यहां पर सही ढंग से बात ना करना ही भटकाव का कारण बनता है। मैरी कॉम अपने अनुभव बांटते हुए कहती हैं कि वे अपने बेटों को बतायेंगी कि एक औरत के शरीर कि नियति यह नहीं है कि वह अनचाहे ढंग से छुई जाए या मसली जाए बल्कि हम औरतें ठीक तुम्हारे जैसी है बस फर्क है तो शारीरिक बनावट का।
मेरे जीवन का एक और दर्दनाक वाकया यौन उत्पीडन से जुड़ा है। सामान्य तौर पर यह मान लिया जाता है कि यौन उत्पीड़न की शिकार केवल महिलाएँ होती हैं। ऐसा नहीं है। मेरा एक बेहद करीबी दोस्त जो कॉलेज में पढ़ रहा था। हॉस्टल में रोज़ाना इसका शिकार हो रहा था। हॉस्टल का ही एक अन्य लड़का जबरन उसके साथ अप्राकृतिक सम्बन्ध स्थापित करता। प्रताड़ना इस क़दर बढ़ गई कि आखिरकार उसने आत्महत्या कर ली। मैं सोचती हूँ वह क्यूँ नहीं कह पाया? क्यूं नहीं विरोध कर पाया? क्यों नहीं खुद को बचा पाया? लडकियाँ नहीं बोल पाती, वह भी नहीं बोल पाया।
हम क्यों नहीं बोल पाते? क्या है जो हमें रोकता है? 12 साल कि वो लड़की यानी मैं अपनी माँ से इसलिए नहीं कह पायी थी क्योंकि किसी पुरुष का लिंग देख लेना “गंदी बात” थी। हम डरते हैं, ये डर हमारे अन्दर कौन छोड़ जाता है? किससे डरते हैं हम? हम सब भीड़ में छूट गए वे बच्चे हैं जो घर ढूंढते हुए ज़ख़्मी हो चुके हैं। और घर कहीं नज़र नहीं आता। नज़र आता है बीहड़। और इस बीहड़ में निहत्थे हम। इस हिंसक दौर में सोच पर हमला करोगे तो शायद चुप हो जायेंगे लेकिन इस देह को किस तालाब में डुबोकर जिएँ!